भ्रमरी
वायु को शक्ति भ्रिंगी (wasp) की आवाज करते हुये भर कर, और फिर उसे वही आवाज करते हुये धीरे धीरे निकालें। यह अभ्यास योगिन्द्रों को अद्भुत आनन्द देता है।
मूर्छा
पूरक (अन्दर साँस लेने) के अन्त में, साँस लेने वाली नाडी को जल्न्धर बन्ध द्वारा अच्छे से बंद करना, और फिर वायु को धीरे धीरे निकालना, इसे मूर्छा कहा जाता है, क्योंकि इस से मन का वेग शान्त होता है और सुख मिलता है।
प्लविनी (किशती के समान)
-- चब पेट में हवा भरी जाती है और शरीर में भरपूर पूरी तरह से हवा भर ली जाये, तो गहरे से गहरे पानी में भी शरीर कमल के पत्ते की तरह तैरने लगता है।
-- पूरक (अन्दर लेना), रेचक (बाहर छोडना) और कुम्भक (अन्दर रोकना) - इस तरह से देखा जाये तो प्राणायम तीन भागों में विभक्त है। लेकिन अगर इसे पूरक और रेचन के साथ, और इन के बिना - इस प्रकार देखा जाये तो यह दो ही प्रकार का है - सहित (पूरक और रेचन के साथ) और केवल (केवल कुम्भक)।
-- सहित का अभ्यास तब तक करते रहना चाहिये जब तक केवल प्राप्त न हो जाये। केवल का अर्थ है वायु को अन्दर रखना बिना किसी मुश्किल के, बिना साँस लिये या निकाले।
-- केवल प्राणायम के अभ्यास में, जब उसे ठीक प्रकार से रेचक और पूरक के बिना किया जा सके तो उसे केवल कुम्भक कहते हैं।
-- उस के लिये इस संसार में कुछ भी प्राप्त करना कठिन नहीं है, जो अपनी इच्छा अनुसार वायु को अन्दर रोक कर रख सकता है केवल कुम्भक के माध्यम से।
-- उसे असंशय रूप से राज योग प्राप्त हो जाती है। उस कुम्भक द्वारा कुण्डली जागरित होती है और उसके जागरित होने से सुशुम्न नाडी (बीच की नाडी) अशुद्धता मुक्त हो जाती है।
-- राज योग में हठ योग के बिना कोई सफलता नहीं मिल सकती, और हठ योग में राज योग के बिना कोई सफलता नहीं है। इसलिये, मनुष्य को इन दोनो का ही जम कर अभ्यास करना चाहिये जब तक पूर्ण सिद्धि न प्राप्त हो जाये।
-- कुम्भक के अन्त में मन को आराम देना चाहिये। इस प्रकार अभ्यास करने से मनुष्य राज योग की पद को प्राप्त कर लेता है।
हठ योग के पथ में सिद्धि के लक्षण
जब शरीर पतला हो जाये, मुख आनन्द से उज्वल हो जाये, अनहत नाद उत्पन्न हो, आँखें साफ हो जायें, शरीर निरोग हो जाये, बिंदु पर काबु हो जाये, भूख बढ जाये - तब योगी को जानना चाहिये की नाडीयाँ स्वच्छ हो गईं हैं और हठ योग में सिद्धि निकट आ रही है।
On Mudras
-- जिस प्रकार भगवान अनन्त नाग पर ही यह संपूर्ण संसार टिका हुआ है, उसी प्रकार सभी तन्त्र (योग क्रियायें) भी कुण्डली पर टिकी हैं।
-- जब गुरु की कृपा से सोती हुई कुण्डली शक्ति जागती है, तब सभी कमल (छे चक्र) और गन्ठियां भिन्न हैं।
-- सुशुम्न नाडी प्राण का मुख्य पथ बनती है, और मन तब सभी संगों और विचारों से मुक्त हो जाता है, तथा मृत्यु पर विजय प्राप्त होती है।
-- सुशुम्न, शुन्य पदवी, ब्रह्म रन्ध्रा, महापथ, स्मासन, संभवी, मध्य मार्ग - यह सब एक ही वस्तु के नाम हैं।
-- इसलिये, इस कुण्डली देवी को जगाने के लिये, जो ब्रह्म द्वारा पर सो रही है, मुद्राओं का अभ्यास करना चाहिये।
The Mudras
-- दस मुद्रायें हैं जो जरा और मृत्यु का विनाश करती हैं। ये हैं महा मुद्रा, महा बन्ध, महा वेध, केचरी, उद्दियान बन्ध, मूल बन्ध, जल्न्धर बन्ध, विपरीत करनी, विज्रोली, शक्ति चलन।
-- इनका भगवान आदि नाथ (शिवजी) नें वर्णन किया है और इन से आठों प्रकार की दैविक सम्पत्तियाँ प्राप्त होती है। सभी सिद्धगण इन्हें मानते हैं, और ये मारुतों के लिया भी प्राप्त करनी कठिन हैं।
-- इन मुद्राओं को हर ठंग से रहस्य रखना चाहिये, जैसे कोई अपना सोने की तिजोरी रखता है, और कभी भी किसी भी कारण से किसी को नहीं बताना चाहिये जैसे पति और पत्नि आपनी आपस की बातें छुपाते हैं।