विभिन्न प्रकार के कुम्भक
-- कुम्भक आठ प्रकार के होते हैं - सूर्य भेदन, उजई, सीतकरी, सितली, भस्त्रिका, भ्रमरि, मूर्च्छा और प्लविनि।
-- पूरक के अन्त में जल्नधर बन्ध करना चाहिये, और कुम्भक के अन्त में और रेचक के शुरु में उदियान बन्ध नहीं करना चाहिये। (पूरक कहते हैं बाहर से भीतर हवा भरने को - अन्दर साँस लेने को)।
-- कुम्भक कहते हैं साँस को अन्दर रोक कर रखने को (हवा को अन्दर बंद कर के रखना)। रेचक साँस को बाहर छोडने को कहते हैं। पूरक, कुम्भक और रेचक की जानकारी सही जगह दी जायेगी और इसे ध्यान से समझना और लागू करना चाहिये। अपने नीचे के भाग को ऊपर की ओर खींच कर (मूल बन्ध) और अपनी गर्दन को अन्दर की ओर खींच कर (ठोडी को छाती से लगा कर - जल्नधर बन्ध) और अपने पेट को अन्दर की ओर खींच कर - यह करने पर प्राण ब्रह्म नाडी (सुशुम्न) की तरफ बढता है (उसमें प्रवेश करने की चेष्टा करता है)। (बीच वाली नाडी को योगी जन सुशुम्न कहते हैं। उस के साथ में दो अन्य जो नाडियां होती हैं जो रीड की हडडी के साथ चलती हैं उन्हें ईद और पिंग नाडीयाँ कहा जाता है।)
-- अपान वायु को ऊपर को खींच कर और प्राण वायु को गर्दन में से होती नीचे की ओर धकेल कर योगी जरा से मुक्त हो ऐसे यौवन अवस्था को प्राप्त कर लेता है मानो सोलंह साल का हो। (प्राण का स्थान हृदय है औऱ अपान का स्थान anus है। समान का स्थान पेट है, उदान का गला स्थान है और व्यान का स्थान सारा शरीर है - यह पाँच पॅकार की वायु हैं जो मनुष्य को जीवित रखती हैं।)