योग का प्रारंभ
वैदिक काल में यज्ञ और योग का बहुत महत्व था। यह अनुमान भगवान शंकर की बैठने की मुद्रा को देखकर लगाया जा सकता है। भगवान शंकर के बाद वैदिक ऋषि-मुनियों से ही योग का प्रारंभ माना जाता है। बाद में कृष्ण, महावीर और बुद्ध ने इसे अपनी तरह से विस्तार दिया। इसके पश्चात पातंजलि ने इसे सुव्यवस्थित रूप दिया।
इस रूप को ही आगे चलकर सिद्धपंथ, शैवपंथ, नाथपंथ वैष्णव और शाक्त पंथियों ने अपने-अपने तरीके से विस्तार दिया। इसके लिए उन्होंने चार आश्रमों की व्यवस्था निर्मित की। ब्रह्मचर्य आश्रम में वेदों की शिक्षा के साथ ही शस्त्र और योग की शिक्षा भी दी जाती थी। ऋग्वेद को 1500 ईसा पूर्व से 1000 ईसा पूर्व के बीच लिखा गया माना जाता है। इससे पूर्व वेदों को कंठस्थ कराकर हजारों वर्षों तक स्मृति के आधार पर संरक्षित रखा गया।
संसार की प्रथम पुस्तक ऋग्वेद में कई स्थानों पर यौगिक क्रियाओं के विषय में उल्लेख मिलता है।
योग के बिना विद्वान का भी कोई यज्ञकर्म सिद्ध नहीं होता। वह योग क्या है, योग चित्तवृत्तियों का निरोध है। वह कर्तव्य कर्ममात्रा में व्याप्त है। योगाभ्यास का प्रामाणिक चित्रण लगभग 3000 ईसा पूर्व सिन्धु घाटी सभ्यता के समय की मोहरों और मूर्तियों में मिलता है। हिंदू, जैन और बौद्ध धर्म में योग का अलग-अलग तरीके से वर्गीकरण किया गया है। इन सबका मूल वेद और उपनिषद ही रहा है। भारतीय दर्शन के मान्यता के अनुसार वेदों को अपौरुषेय माना गया है अर्थात वेद परमात्मा की वाणी है तथा इन्हें करीब दो अरब वर्ष पुराना माना गया है।
563 से 200 ईसा पूर्व योग के तीन अंग तपो स्वाध्याय और ईश्वर प्राणिधान का प्रचलन था। इसे क्रिया योग कहा जाता है। जैन और बौद्ध जागरण और उत्थान काल के दौर में यम और नियम के अंगों पर जोर दिया जाने लगा। यम और नियम अर्थात अहिंसा, सत्य, ब्रह्मचर्य, अस्तेय, अपरिग्रह, शौच, संतोष, तप और स्वाध्याय का प्रचलन ही अधिक रहा।
यहां तक योग को सुव्यवस्थित रूप नहीं दिया गया था। पहली दफा 200 ईसा पूर्व पातंजलि ने वेद में बिखरी योग विद्या का सही-सही रूप में वर्गीकरण किया। पातंजलि के बाद योग का प्रचलन बढ़ा और यौगिक संस्थानों, पीठों तथा आश्रमों का निर्माण होने लगा, जिसमें सिर्फ राजयोग की शिक्षा-दीक्षा दी जाती थी। योग परम्परा और शास्त्रों का विस्तृत इतिहास रहा है। हालांकि इसका इतिहास दफन हो गया है अफगानिस्तान और हिमालय की गुफाओं में और तमिलनाडु तथा असम सहित बर्मा के जंगलों की कंदराओं में।
जिस तरह राम के निशान इस भारतीय उपमहाद्वीप में जगह-जगह बिखरे पड़े हैं उसी तरह योगियों और तपस्वियों के निशान जंगलों, पहाड़ों और गुफाओं में आज भी देखे जा सकते हैं। बस जरूरत है भारत के उस स्वर्णिम इतिहास को खोज निकालने की जिस पर हमें गर्व है।